Zayke
Zayke

Zayke का सफर हमेशा याद रहता है

Zayke जो आपकी जबान पर पहली बार चढ़े और हमेशा के लिए अपनी याद छोड़ गये

कुछ ऐसा जीवन में सभी के साथ होता है.याद करिए आपने पहले -पहल समोसा,कचोरी या पोहा कब खाया था . खाने के दौरान कौन सी वह जगह है या कौन सा वह अवसर था ज़ब उस वस्तु का  स्वाद तब मुँह मे घुला था और  आज भी  याद है.

जब भी आपके जेहन में उस वस्तु का ख्याल आता है तो सीधा आपका मन आज से  25 -35 साल पहले , पहली बार लिए  उस Zayke  से  कनेक्ट  हो जाता है.

शहरी क्षेत्र में रहने वालों के लिए जो Zayke  सरलता से उपलब्ध  रहा करते थे वे ग्रामीण क्षेत्र में रहने वाले लोगों के लिए आज से  30 – 40 साल पहले इतने सुलभ नहीं थे. अच्छी तरह याद है कि पहले -पहले गांवो में सेव की थैलियां 70 – 80 के दशक में पहुंचने लगी थी.

लोगों का इस सेव से  साक्षात्कार यूं तो कभी-कभी हर 8 दिन में लगने वाले हाट में हो जाता था लेकिन निरंतरत  रूप में सुलभता  80 के दशक मे ही शुरू हुई.  इस तरह समोसा , कचोरी आलुबडा के Zayke  ग्रामीण क्षेत्र के छोटे-छोटे कसबों में इसी दौर  ही में मिलना शुरू हुए होंगे , यह  सहज समझा जा सकता है.

ग्रामीण क्षेत्र मे तब

विवाह समारोह में भी आमतौर पर बनने वाली  मिठाइयों व नमकीन में नुक्ती, चक्की बाद  में खोपरा पाक  , बेसन के भजिए आदि ही शामिल हुआ करते थे. सेव,मिक्सचर ,चूड़े आदि का प्रयोग भी लगभग वही  70 के दशक में शुरू हुआ  माना जा सकता है. लेकिन इस तरह की सामग्रियां के Zayke  भी कुछ खास लोगो के विवाह समारोह में ही उपलब्ध हुआ करती थी.

MP रतलाम मालवा में सेव  निर्माण के लिए एक बड़ा स्थान था

यहां के नमकीन भी उस दौर में हर जगह उपलब्ध नहीं थे. बड़े शहरों में रतलामी सेव के नाम से दुकान जरूर मिल जाया करती थी पर वो  Zayke नही . बहुत कम लोग जानते हैं कि यदि आप  एक किलो सेव खरीद रहे हैं तो साथ में 400 ग्राम तेल भी ले जा रहे हैं.

सोडा और नमक इसके अलावा. तब लोग  वर्तमान की तरह हेल्थ कॉन्शियस नहीं थे, उनके रोजमर्रा के भोजन में सुबह -शाम सेव  एक अनिवार्य वस्तु रहा करती थी.कई लोगों को तो आज भी बिना नमकीन खाए खाना पचता नहीं है.

बात हो रही थी स्वाद के पहले स्पर्श की, जबान  पर आए उस  Zayke को याद करने की तो शायद सभी के जेहन में कोई न  कोई ऐसी दुकान या शॉप पर बनी वस्तु  विशेष ने मस्तिष्क में घर कर रखा होगा कि वैसा स्वाद तो आज तक कहीं खोजने पर भी नहीं मिला.

जैसे बचपन में कभी गाँव की  छोटी सी दुकान पर बने हुए चिवड़े  में डाले  गए मूंगफली के दाने का जो स्वाद पाया था उस  Zayke  खोज आज तक जारी है .बहुतेरी जगह ट्राय करने पर  वो  Zayke नही मिले .

इसी तरह एक छोटे से कस्बे में पहली बार एक  समोसे की दुकान खुली और वहां  पहली बार  गरमा गरम समोसे में खडे धनिये का जो स्वाद प्रकट हुआ था वह Zayke  ढूंढे नहीं मिल रहे . उज्जैन के छाया रेस्टोरेंट की दाल और नरेंद्र टॉकीज के समोसे में 25 साल पहले जो स्वाद था वह आज कहां  है.

शिमला के माल रोड पर सरदार जी के ढाबे पर खाई हुई दाल का स्वाद फिर से वहां जाने के बाद भी नहीं मिला. माथेरान महाराष्ट्र जाते समय कर्जत स्टेशन के बाहर ठेले पर बना रहे वड़ापाव का स्वाद जो 2006 में मिला था फिर 2010 और 16 में जाने पर नहीं पाया.

ठंड के दिनों में थाल में राणापुर  (झाबुआ) क़स्बे मे 1977-78   में  सुबह – सुबह  गर्म जलेबी  लेकर निकलने वाले अरोड़ा जी की जैसी जलेबी  कहीं  नहीं पाई.  यह सब वे  स्वाद है  Zayke  है जो सबके मन के किसी कोने में सहेज कर रखे हुए हैं, जिसके स्मरण  मात्र से आप Zayke के सफर पर चल पड़ते है.

यह  भी देखें ;

http://केवल कचोरी खाने क्या कोई Jodhpur प्लेन लैंड करेगा,ऐसा हुआ है 16 जनवरी 2013 को

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